1.दीपावली
विचार विन्दु । भूमिका 2. दीपावली का महत्व दीपावातों का प्रारंभ 4. निष्कर्ष।
भूमिका दीपावली अर्थात दीपोत्सव कालिक मास के अमावस्या।
भूमिका दीपावली अर्थात दीपोत्सव कासिक माम के अमावस्या जाने वाला एक प्राचीन हिन्दू त्याहार है। दीपावली कात्योहारों में से एक है जिसे शर्म और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है।
दीपावली का महत्व भारतवर्ष में मानाए जाने वाला इस त्योहार का सामाजिक आर्थिक और धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्त्व है। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास भाईचारे प्रेम का संदेश फैलाता है।
दीपावती के अवसर पर घर तथा आर्स-पास के परिवेश की विशेष कमें स्वच्छ किया जाता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है।
दीपावली का प्रारंभ दुर्गापूजा के बाद से ही दीपावली की तैयारी आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता है। दीपावली के अवसर पर घर-मोहल्ले, बाजार सब साफ सुथरे व सजे-धजे नजर आते हैं।
दीपावली के दिन धन एवं ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। शाम को लोग दीये जलाते है। पटाखे फोड़ते है एवं एक दूसरे को मिठाइयाँ बाँटते हैं।
दीपावली मनाने की परंपरा भगवान राम की लंका विजय से है। इसी दिन चौदह वर्षों का वनवास समाप्त कर श्रीराम अयोध्या लौटे थे। उनकी वापसी पर अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी।
कुछ लोग यह भी मानते हैं कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की पूर्णाहुति की प्रसन्नता से यह त्योहार का आरंभ हुआ था। जैन धर्मानुयायी इस दिन को भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं।
निष्कर्ष बुराई पर अच्छाई की जीत का यह त्योहार प्रत्येक वर्ष देश विदेश में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह एक ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। यह पूरे भारतवर्ष में एकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता हैग
2. भारत्तीय नारी
विचार बिन्दु-1. भूमिका,2. ऐतिहासिक स्थिति,3. वर्तमान स्थिति4. निष्कर्ष।
भूमिका-नारी। तुम केवल श्रद्धा हो.
विश्वास रवत नग पगतल में।
पीयूष स्त्रोत सही वहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में।
प्राचीन युग से ही हमारे समाज में नारी का विशेष स्थान रहा है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नारी को पून्नीया एवं देवी तुल्य माना गया है। हमारी धारणा रही है कि देव शक्तियाँ वहीं पर निवास करती. है. . है. जहाँ पर समस्त नारी जाति को प्रतिष्ठा व सम्मान की दृष्टि से देखा कता है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
ऐतिहासिक स्थिति- प्राचीनकाल में भारतीय नारियों को आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उनकी नैतिकता का स्तर ऊँचा था। विदुषी स्त्रियाँ समाज में दार्शनिक विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क में भाग लेती थी। लेकिन मध्यकाल में भारतीय नारी की स्थिति बिगड़ती चली गयी। इस्लामी और इसाई आगमन से इनके हक चिनते चले गए। भारतीय नारियाँ सामाजिक बेड़ियों में बंधकर रहने लगी। जिनमें प्रमुख थी सत्तीप्रथा, बाल-विवाह, बाल श्रम, दहेज प्रथा, पर्दा-प्रथा, विधवाओं से पुनः विवाह पर रोक इत्यादि।
वर्तमान स्थिति आज का युग परिवर्तन का युग है। वर्तमान समय में भारतीय नारी की दशा में अभूतपूर्व परिवर्तन को देश के सामाजिक विकास का परिचायक कहा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अनेक समाज सुधारकों, समाजसेवियों तथा हमारी सरकारों ने नारी उत्थान की ओर विशेष ध्यान दिया। समाज व राष्ट्र के सभी वर्गों में इसकी महत्ता को प्रकट करने का प्रयास किया है।
फलतः आज नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। विज्ञान व तकनीकी सहित लगभग सभी क्षेत्रों में उसने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। उसने समाज व राष्ट्र को सिद्ध कर दिखाया है कि शक्ति अथवा क्षमता की दृष्टि से बह पुरुषों से किसी भी भाँति कम नहीं है। भारतीय नारी अपनी शक्ति व कौशल के माध्यम से यह साबित कर दिखाया है कि वह अबला नहीं सबला है।
निष्कर्ष नारी जगत की जननी है, जो विश्व का पालन-पोषण करती है। भारतीय नारी समय और शिक्षा दोनों के महत्त्व को ससझने लगी है। आज शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी, वैज्ञानिक, कला, कविता, साहित्य सभी क्षेत्रों में अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर देश के निर्माण एवं उन्नति में सहयोग कर रही है। यदि इसी तरह भारतीय नारी पुरुषों के साथ मिलकर उत्थान के लिए कार्य करते रहे तो
में कोई शक नहीं कि हमारा भारत शिखर तक की सफल यात्रा कर सकेगा।
3.वृक्षारोपण
विचार बिन्दु- 1. भूमिका, 2. वृक्ष की महत्ता, ३. लाभ. 4. कटाई से हानि, 5. निष्कर्ष।
भूमिका वृक्षारोपण का शाब्दिक अर्थ है वृक्ष लगाकर उन्हें उगाना, इसका प्रयोजन करना। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति वनों में ही पल्लवित हुई है। भारत में न केवल देवी देवताओं की अपितु प्रकृति प्रदत वृक्षों की भी पूजा होती है। इन वृक्षों में देवताओं का वास माना जाता है।
मानव सभ्यता को भोजन, वस्त्र गौर आवास की समस्याओं का समाधान इन्हीं वृक्षों से हुआ है। वृक्ष अधिक होंगे तो प्रकृति का संतुलन होगा, वर्षा होगी, फसल होगी, मनुष्य की क्षुधा पूर्ति होगी। इसलिए हमारे समाज में वृक्षारोपण की आवश्यकता तेजी से महसूस की जा रही है। यह मानव समाज का सांस्कृतिक दायित्व है।
वृक्ष की महत्ता मानव के जीवन को सुखी, समृद्ध व संतुलित बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण का अपना विशेष महत्त्व है। वृक्ष हमें लंबे जीवन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। वे धरती पर वर्षा कराते हैं, धरती की गर्मी को कम करते हैं, पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। वृक्षों से मनुष्य के हृदय को शांति मिलती है। ये हमें स्वार्थी बनने से रोकते हैं और हमें दूसरों को उपकार करने की प्रेरणा देते हैं। अतः वृक्षों की महत्ता तब तक धरती पर बनी रहेगी जब तक मनुष्य का जीवन इस धरती पर रहेगा।
लाभ-वृक्ष से अनेक लाभ है। बड़-बड़े नीम, पीपल, वट वृक्ष हवा को शुद्ध करते हैं। वृक्ष भूमि का क्षरण रोकते हैं। वृक्ष वर्षा कराते हैं। इससे अच्छी फसलें होती है, जिन्हें खाकर जीवित रहते हैं। पत्तों से खाद बनती है, सुखी टहनियाँ से ईंधन मिलता है। इनसे अनेक प्रकार की औषधियाँ मिलती है, कागज बनते हैं। इनसे पर्यावरण संतुलन बना रहता है।
कटाई से हानि- आजकल आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग से वृक्षों की अंधा-घूंध कटाई हो रही है। लोग फर्नीचर एवं ईंधन के लिए पेड़ों की कटाई कर रहे हैं। इससे धरती का संतुलन बिगड़ रहा है। जंगल खलिहान बन रहे हैं, वर्षा कम हो रही है, धरती मरुभूमि बन रहे हैं। ऑक्सीजन एवं ओजोन की मात्रा बढ़ती जा रही है। इसलिए वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की प्रतिपूर्ति आवश्यक है।
निष्कर्ष-वृक्षों के फैलाव के सिमटने का कारण बढ़ती हुई जनसंख्या है। अब हमें वनों का नंगापन और भवनों में दस मंजिला ऊँची इमारतें नजर आती है। आज का स्वार्थी मानव पेड़ तो काटता गया लेकिन पेड़ लगाना भूल गया। इसलिए आवश्यक है जितने पेड़ काटे जाएँ, उससे कहीं अधिक रोपे जाएँ। वृक्षों की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। अपने
और आने वाली पीढ़ी के जीवन को बचाने के लिए
हमें वृक्षारोपण करना ही होगा।