भारत का लगभग आधा भाग कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित है जो ‘उष्ण कटिबंध’ में है तथा आधा भाग कर्क रेखा के उत्तर में स्थित है जो ‘उपोष्ण कटिबंध‘ है। हिमालय, अरब सागर, हिंद महासागर एवं बंगाल की खाड़ी की अवस्थिति ने भारतीय जलवायु को काफी प्रभावित किया है।
भारत की जलवायु ‘उष्ण कटिबंधीय मानसूनी’ है,
क्योंकि ऋतु परिवर्तन के साथ ही भारत में अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी से चलने वाली हवाओं की दिशा बदल जाती है।
जलवायु : किसी विस्तृत क्षेत्र में 30 वर्षों से अधिक समयावधि के मौसमी विशेषताओं के कुल योग के औसत को जलवायु कहते है। न्यू जी.एस.
मौसम । किसी भी क्षेत्र में कुछ घंटा, कुछ दिन या कुछ सप्ताह तक जो वायुमण्डलीय दशा होती है, उसे मौसम कहा जाता है।
मानसून : ‘मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘मौसिम’ से ऋतु के अनुसार प्रत्यावर्तन अर्थात् बदलना। हुई है, जि जिसका अर्थ है- पवनों की दिशा का
मानसूनी पवन : मानसूनी पवन उस पवन को कढ़ते हैं जो ऋतु में परिवर्तन के साथ अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है। puedभारतीय जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक-
1. अक्षांश : कर्क रेखा भारत के मध्य से गुजरती ‘उष्ण कटिबंधीय जलवायु’ पायी जाती है। अत और गंगा के मैदान में भारी वर्षा होती है। है। कर्क रेखा के उत्तर में ‘उपोष्ण जलवायु’ तथा दक्षिण में सूर्य के उत्तरायण से इस क्षेत्र में न्यूनदाब का क्षेत्र बनता है
2.हिमालय : यह पर्वत साइबेरिया से आने वाली ठंडी पवनों से भारतीय उपमहाद्वीप को बचाती है तथा मानसूनी पवनों को रोककर भारत में वर्ष कराती है।
समुद्र तट से दूरी : लंबी तटीय सीमा के कारण तटीय प्रदेशों की जलवायु समकारी रहती है, जबकि आंतरिक जलवायु अधिक दूरी के कारण विषम जलवायु रह जाती है।
जल तथा स्थल का वितरण स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म व देर से ठंडा होता है, इसी विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में अलग-अलग ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब क्षेत्र विकसित होते है। ये वायुदाच प्रदेश मानसूनी पवनों के अलग-अलग वितरण के कारण बनते हैं।
उच्चावच: भारत का भौतिक स्वरूप तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा दाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है।
भारतीय मानसून की प्रकृति
भारतीय मानसून का संबंध मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु से है, चूंकि इस समय सूर्य की स्थिति कर्क रेखा के पास होता है, जो भारत के बीचों-बीच स्थिति है। अतः यहाँ तेज गर्मी पड़ती है जिससे यहाँ की वायु गर्म होकर ऊपर उठ जाती है। ऐसे में इस क्षेत्र में न्यूनदाब का क्षेत्र बन जाता है जिसे भरने के लिए उच्चदाब से हवायें इस तरफ दौड़ती है और अपने साथ आद्रता लाकर यहाँ भारी वर्षा कराती है।
भारतीय मानसून की मात्रा को मेडागास्कर के पूर्व में बना उच्च वायुदाब का क्षेत्र, व्यापारिक पवने, तिब्बत के पठार पर निम्न वायुदाब क्षेत्र बनना, एल-नीनो, ला-नीनो आदि व्यापक रूप से प्रभाषित करते हैं।भारतीय मानसून को प्रारंभ करने की प्रमुख स्थितियाँ-
1.म्नदाब एवं उच्चदाब : जिस क्षेत्र में गर्मी अधिक पड़ती है उस क्षेत्र की हवा गर्म होकर उपर उठ जाती है और वहाँ ‘न्यूनदाब’ का क्षेत्र बन जाता है। इसके विपरित जो क्षेत्र ठंडी होती है वहाँ हवाएँ ‘भारी’ होकर नीचे आ जाती है जिससे उस क्षेत्र में ‘उच्चदाब’ का क्षेत्र बन जाता है।
2. हवा का बहना : हवायें हमेशा उच्चदाब से निम्नदाब की ओर बहती है अर्थात् ठंडा क्षेत्र से गर्म क्षेत्र की ओर (HP LP)
3. न्यूनदाब क्षेत्र में वर्षा: गर्म हवाने जब सतह से उठकर, उपर जाती है तो वायुमंडल में उसे उदक प्राप्पा होती है जिससे ‘संघनन की प्रक्रिया शुरू होने लगती है अतः बादलों का निर्माण होता है और कुछ समय पश्चात् न्यूनदाब वाले क्षेत्र में वर्षा होती है।
4. पानी की तुलना में जमीन जल्दी गर्म में या जल्दी ठंडी होती है।
5. व्यापारिक पवनें: इस पेटी का विस्तार दोनों गोलाद्धों में 30° से 35° के मध्य पाय जाता है। भूमध्य रेखा से प्रवाहित वायु तथा उपश्नुतीय निम्न वायुदाब की वायु वायु पृथ्यों को पूर्णन गति के प्रभाव से यहाँ आकर बैठ जाती है जिससे यहाँ उच्चदाब क्षेत्र निर्माण होता है, हालांकि इस क्षेत्र में गर्मियों में तापमान ‘उच्च’ बना रहता है।वायुदाब की पेटियां एवं पवने
6. अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ): ITCZ मुख्यतः सूर्य की स्थिति को दर्शाने वाला एक गर्म पट्टी का क्षेत्र है जहाँ हमेशा न्यूनदाब का क्षेत्र बना रहता है। यह सूर्य के विषुवत रेखा से उत्तरायण एवं दक्षिणायण की स्थिति में क्रमशः उत्तर और दक्षिण दोलित होता रहता है। इसे ‘मानसून गर्त’ भी कहा जाता है क्योंकि यह पट्टी जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ मानसूनी वर्षा होती है।गर्मियों में ITCZ क्षेत्र के उत्तर खिसकने से दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा को पार कर जाती है। कोरियोलिस बल के प्रभाव के कारण इन व्यापारिक पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर हो जाती है जो हिंद महासागर से आर्द्रता ग्रहण कर भारत में मानसूनी वर्षा कराती है।
गंगा के महान में निम्मराव का क्षेत्र उपका
कोरियाणित बहा: गयी और गुड़ना
(व्यापारिक पसनेः यक्षिणी गोलार्ड में)मानसून उत्पत्ति के सिद्धांत एवं वैज्ञानिक-
1. तापीय सिद्धांत (1656): एडमंड हैली2. गत्यात्मक (गतिक) सिद्धांत (1951) फ्लोन
भारत में मानसून का आगमनप्री-मानसून : भारत के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र से। जून को मुख्य मानसून का प्रवेश होता है, लेकिन इससे पूर्व भारत के ऊपर ITCZ क्षेत्र का आगमन तमिलनाडु से बढ़ते हुए गंगा के मैदान तक क्रमशः होता है। चूंकि ITCZ का क्षेत्र एक अत्यधिक तापमान वाला क्षेत्र है अतः उस क्षेत्र की हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और उपर संघनित होकर उस क्षेत्र में वर्षा कराती जाती है, इसी घटना को ‘प्री-मानसून’ कहा जाता है।
A प्री-मानसून से होने वाले वर्षा को अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग नाम दिया गया है, जैसे कि-केरल में : चेरीब्लॉसम महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में: आम्रवर्षामध्य प्रदेश में: मावठा
मानसून। मानसून का मुख्य काम भारतीय क्षेत्र में वर्षा कराना है जहाँ तेज गर्मी अर्थात् ITCZ की उपस्थिति के कारण तीव्र निम्नवायुदाब का क्षेत्र बना हुआ है। इस निम्न वायु के क्षेत्र को भरने के लिए बंगाल की खादी एवं अरब सागर का क्षेत्र पर्याप्त नहीं हो पाता। इसी समय दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें जो ITCZ के उत्तर की ओर खिसकने से आगे बढ़ जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप पर बने निम्न वायुदाब की ओर आकर्षित हो जाती है।
1. दक्षिणी-पश्चिम मानसून अफ्रीका के पूर्वी तट पर मेडागास्कर के पास हिन्द महासागर पर पूर्वी जेट प्रवाह के कारण ‘उच्च वायुदाब’ का क्षेत्र विकसित होता है जो दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों के साथ, भारी मात्रा में आर्द्रता लेकर दक्षिण-पश्चिम से। जून को केरल व चेन्नई में प्रवेश करती है।
भारत के पश्चिमी तट से मानसूनी पवन टकराकर दो भागों में विभाजित हो जाती है-
2.अरब सागर की शाखा और
बगाल की खाड़ी की शाखा।
(क) अरब सागर की खाड़ी की शाखा यह शाखा पश्चिमी घाट से टकराकर वर्षा कराते हुए गुजरात में प्रवेश करती है जहाँ से यह अरावली पर्वत के समानांतर चलती है। चूंकि इस क्षेत्र में इन मानसूनी पवनों को रोकने के
लिए कोई लम्बवत पर्वत श्रृंखला नहीं है। अतः राजस्थान में वर्षा कम हो पाती है।
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